Tuesday, October 12, 2021

प्रेमचन्द के साथ दो दिन (साक्षात्कार)

प्रेमचन्द के साथ दो दिन (साक्षात्कार)

 

आप आ रहे हैं, बड़ी खुशी हुई । अवश्य आइये । आपसे न-जाने कितनी बातें करनी है ।

            मेरे मकान का पता है –

            बेनिया-बाग में तालाब के किनारे लाल मकान । किसी इक्केवाले से कहिये, वह आपको बेनिया – पार्क पहुंचा देगा । पार्क में एक तालाब है । जो अब सुख रहा है । द्वार पर लोहे की Fencing है । अवश्य आइये ।

- - धनपतराय  ।   

            प्रेमचंदजी की सेवा में उपस्थित होने की इच्छा बहुत दिनों से थी । यद्यपि आठ वर्ष पहले लखनऊ में एक बार उनके दर्शन किए थे, पर उस समय अधिक बातचीत करने का मौका नहीं मिला था । इन आठ वर्षों में कई बार काशी जाना हुआ, पर प्रेमचंदजी उन दिनों काशी में नहीं थे । इसलिए ऊपर की चिट्ठी मिलते ही मैंने बनारस कैंट का टिकट कटाया और इक्का लेकर बेनिया पार्क पहुँच ही गया । प्रेमचंद जी का मकान खुली जगह में सुंदर स्थान पर है और कलकत्ते का कोई भी हिंदी पत्रकार इस विषय में उनसे ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकता । लखनऊ के आठ वर्ष पुराने प्रेमचंदजी और काशी के प्रेमचंदजी की रूपरेखा में विशेष अंतर नहीं पड़ा । हाँ मूँछों के बाल जरूर 53 फीसदी सफेद हो गए हैं। उम्र भी करीब-करीब इतनी ही है। परमात्मा उन्हें शतायु करें, क्योंकि हिंदी वाले उन्हीं की बदौलत आज दूसरी भाषा वालों के सामने मूँछों पर ताव दे सकते हैं । यद्यपि इस बात में संदेह है कि प्रेमचंदजी हिंदी भाषा-भाषी जनता में कभी उतने लोकप्रिय बन सकेंगे, जितने कवीवर मैथिलीशरण जी हैं, पर प्रेमचंदजी के सिवा भारत की सीमा उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिंदी कलाकार इस समय हिंदी जगत में विद्यमान नहीं । लोग उनको उपन्यास सम्राट कहते हैं, पर कोई भी समझदार आदमी उनसे दो ही मिनट बातचीत करने के बाद समझ सकता है कि प्रेमचंदजी में साम्राज्यवादिता का नामोनिशान नहीं । कद के छोटे हैं, शरीर निर्बल-सा है । चेहरा भी कोई प्रभावशाली नहीं और श्रीमती शिवरानी देवी जी हमें क्षमा करें, यदि हम कहें कि जिस समय ईश्वर के यहाँ शारीरिक सौंदर्य बँट रहा था, प्रेमचंदजी जरा देर से पहुँचे थे । पर उनकी उन्मुक्त हँसी की ज्योति पर, जो एक सीधे-सादे, सच्चे स्नेहमय हृदय से ही निकल सकती है, कोई भी सहृदया सुकुमारी पतंगवत् अपना जीवन निछावर कर सकती है । प्रेमचंदजी ने बहुत से कष्ट पाए हैं, अनेक मुसीबतों का सामना किया है, पर उन्होंने अपने हृदय में कटुता को नहीं आने दिया । वे शुष्क बनियापन से कोसों दूर हैं और बेनिया पार्क का तालाब भले ही सूख जाए, उनके हृदय सरोवर से सरसता कदापि नहीं जा सकती । प्रेमचंदजी में सबसे बड़ा गुण यही है कि उन्हें धोखा दिया जा सकता है । जब इस चालाक साहित्य-संसार में बीसियों आदमी ऐसे पाए जाते हैं, जो दिन-दहाड़े दूसरों को धोखा दिया करते हैं, प्रेमचंदजी की तरह के कुछ आदमियों का होना गनीमत है । उनमें दिखावट नहीं, अभिमान उन्हें छू भी नहीं गया और भारत व्यापी कीर्ति उनकी सहज विनम्रता को उनसे छीन नहीं पाई ।

प्रेमचंदजी से अबकी बार घंटों बातचीत हुई । एक दिन तो प्रातःकाल 11 बजे से रात के 10 बजे तक और दूसरे दिन सबेरे से शाम तक । प्रेमचंदजी गल्प लेखक हैं, इसलिए गप लड़ाने में आनंद आना उनके लिए स्वाभाविक ही है। (भाषा तत्त्वविद बतलावें कि गप शब्द की व्युत्पत्ति गल्प से हुई है या नहीं?)

यदि प्रेमचंदजी को अपनी डिक्टेटरी श्रीमती शिवरानी देवी का डर न रहे, तो वे चौबीस घंटे यही निष्काम कर्म कर सकते हैं । एक दिन बात करते-करते काफी देर हो गई । घड़ी देखी तो पता लगा कि पौन दो बजे हैं । रोटी का वक्त निकल चुका था । प्रेमचंदजी ने कहा - 'खैरियत यह है कि घर में ऊपर घड़ी नहीं है, नहीं तो अभी अच्छी खासी डाँट सुननी पड़ती !' घर में एक घड़ी रखना, और सो भी अपने पास, बात सिद्ध करती है कि पुरुष यदि चाहे तो स्त्री से कहीं अधिक चालाक बन सकता है, और प्रेमचंदजी में इस प्रकार का चातुर्य बीजरूप में तो विद्यमान है ही ।

प्रेमचंदजी स्वर्गीय कविवर शंकरजी की तरह प्रवास भीरु हैं । जब पिछली बार आप दिल्ली गए थे,तो हमारे एक मित्र ने लिखा था - ''पचास वर्ष की उम्र में प्रेमचंदजी पहली बार दिल्ली आए हैं !'' इससे हमें आश्चर्य नहीं हुआ । आखिर सम्राट पंचम जॉर्ज भी जीवन में एक बार ही दिल्ली पधारे हैं और प्रेमचंदजी भी तो उपन्यास सम्राट ठहरे ! इसके सिवा यदि प्रेमचंदजी इतने दिन बाद दिल्ली गए तो इसमें दिल्ली का कसूर है, उनका नहीं ।

प्रेमचंदजी में गुण ही गुण विद्यमान हों, सो बात नहीं । दोष हैं और संभवतः अनेक दोष हैं। एक बार महात्माजी से किसी ने पूछा था - ''यह सवाल आप बा (श्रीमती कस्तूरबा गांधी) से पूछिए ।'' श्रीमती शिवरानी देवी से हम प्रार्थना करेंगे कि वे उनके दोषों पर प्रकाश डालें। एक बात तो उन्होंने हमें बतला भी दी कि ''उनमें प्रबंध शक्ति का बिल्कुल अभाव है । हमीं-सी हैं जो इनके घर का इंतजाम कर सकी हैं ।'' पर इस विषय में श्रीमती सुदर्शन उनसे कहीं आगे बढ़ी हुई हैं । वे सुदर्शनजी के घर का ही प्रबंध नहीं करतीं, स्वयं सुदर्शनजी का भी प्रबंध करती हैं और कुछ लोगों का तो जिनमें सम्मिलति होने की इच्छा इन पंक्तियों के लेखक की भी है - यह दृढ़ विश्वास है कि श्रीमती सुदर्शन गल्प लिखती हैं और नाम श्रीमान सुदर्शनजी का होता है ।

प्रेमचंदजी में मानसिक स्फूर्ति चाहे कितनी ही अधिक मात्रा में क्यों न हो, शारीरिक फुर्ती का प्रायः अभाव ही है। यदि कोई भला आदमी प्रेमचंदजी तथा सुदर्शनजी को एक मकान में बंद कर दे, तो सुदर्शनजी तिकड़म भिड़ाकर छत से नीचे कूद पड़ेंगे और प्रेमचंदजी वहीं बैठे रहेंगे । यह दूसरी बात है कि प्रेमचंदजी वहाँ बैठै-बैठै कोई गल्प लिख डालें ।

जम के बैठ जाने में ही प्रेमचंदजी की शक्ति और निर्बलता का मूल स्रोत छिपा हुआ है । प्रेमचंदजी ग्रामों में जमकर बैठ गए और उन्होंने अपने मस्तिष्क के सुपरफाइन कैमरे से वहाँ के चित्र-विचित्र जीवन का फिल्म ले लिया । सुना है इटली की एक लेखिका श्रीमती ग्रेजिया दलिद्दा ने अपने देश के एक प्रांत-विशेष के निवासियों की मनोवृत्ति का ऐसा बढ़िया अध्ययन किया और उसे अपनी पुस्तक में इतनी खूबी के साथ चित्रित कर दिया कि उन्हें 'नोबेल प्राइज' मिल गया। प्रेमचंदजी का युक्त प्रांतीय ग्राम्य-जीवन का अध्ययन अत्यंत गंभीर है, और ग्रामवासियों के मनोभावों का विश्लेषण इतने उँचे दर्जे का है कि इस विषय में अन्य भाषाओं के अच्छे से अच्छे लेखक उनसे ईर्ष्या कर सकते हैं ।

कहानी लेखकों तथा कहानी लेखन कला के विषय में प्रेमचंदजी से बहुत देर तक बातचीत हुई । उनसे पूछने के लिए मैं कुछ सवाल लिखकर ले गया था । पहला सवाल यह था, ''कहानी लेखन कला के विषय में क्या बतलाऊँ ? हम कहानी लिखते हैं, दूसरे लोग पढ़ते । दूसरे लिखते हैं, हम पढ़ते हैं और क्या कहूँ ?'' इतना कहकर खिलखिलाकर हँस पड़े और मेरा प्रश्न धारा-प्रवाह अट्टहास में विलीन हो गया । दरअसल बात यह थी कि प्रेमचंदजी की सम्मति में वे सवाल ऐसे थे, जिन पर अलग-अलग निबंध लिखे जा सकते हैं ।

प्रश्न - हिंदी कहानी लेखन की वर्तमान प्रगति कैसी है ? क्या वह स्वस्थ तथा उन्नतिशील मार्ग पर है ?

उत्तर - प्रगति बहुत अच्छी है । यह सवाल ऐसा नहीं कि इसका जवाब आफहैंड दिया जा सके ।

प्रश्न - नवयुवक कहानी लेखकों में सबसे अधिक होनहार कौन है ?

उत्तर - जैनेंद्र तो हैं ही और उनके विषय में पूछना ही क्या है ? इधर श्री वीरेश्वर सिंह ने कई अच्छी कहानियाँ लिखी हैं । बहुत उँचे दर्जे की कला तो उनमें अभी विकसित नहीं हो पाई, पर तब भी अच्छा लिख लेते हैं । बाज-बाज कहानियाँ तो बहुत अच्छी हैं । हिंदू विश्वविद्यालय के ललित किशोर सिंह भी अच्छा लिखते हैं । श्री जनार्दन झा द्विज में भी प्रतिभा है ।

प्रश्न - विदेशी कहानियों का हमारे लेखकों पर कहाँ तक प्रभाव पड़ा है?

उत्तर - हम लोगों ने जितनी कहानियाँ पढ़ी हैं, उनमें रसियन कहानियों का ही सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है । अभी तक हमारे यहाँ 'एडवेंचर' (साहसिकता) की कहानियाँ हैं ही नहीं और जासूसी कहानियाँ भी बहुत कम हैं । जो हैं भी, वे मौलिक नहीं हैं, कैनन डायल की अथवा अन्य कहानी लेखकों की छायामत्र है । क्राइम डिटैक्शन की साइंस का हमारे यहाँ विकास ही नहीं हुआ है ।

प्रश्न - संसार का सर्वश्रेष्ठ कहानी लेखक कौन है ?

उत्तर - चेखव।

प्रश्न - आपको सर्वोत्तम कहानी कौन जँची ?

उत्तर - यह बतलाना बहुत मुश्किल है । मुझे याद नहीं रहता । मैं भूल जाता हूँ । टाल्सटॉय की वह कहानी, जिसमें दो यात्री तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं, मुझे बहुत पसंद आई। नाम उसका याद नहीं रहा । चेखव की वह कहानी भी जिसमें एक स्त्री बड़े मनोयोगपूर्वक अपनी लड़की के लिए जिसका विवाह होने वाला है कपड़े सी रही है, मुझे बहुत अच्छी जँची। वह स्त्री आगे चलकर उतने ही मनोयोग पूर्वक अपनी मृत पुत्री के कफन के लिए कपड़ा सीती हुई दिखलाई गई है । कवींद्र रवींद्रनाथ की 'दृष्टिदान' नामक कहानी भी इतनी अच्छी है कि वह संसार की अच्छी से अच्छी कहानियों से टक्कर ले सकती है।

इस पर मैंने पूछा कि 'काबुलीवाला' के विषय में आपकी क्या राय है ?

प्रेमचंदजी ने कहा कि ''निस्संदेह वह अत्युत्तम कहानी है । उसकी अपील यूनिवर्सल है, पर भारतीय स्त्री का भाव जैसे उत्तम ढंग से 'दृष्टिदान' में दिखलाया गया है, वैसा अन्यत्र शायद ही कहीं मिले।  मपासां की कोई-कोई कहानी बहुत अच्छी है, पर मुश्किल यह है कि वह 'सैक्स' से ग्रस्त है ।''

प्रेमचंदजी टाल्सटॉय के उतने ही बड़े भक्त हैं जितना मैं तुर्गनेव का । उन्होंने सिफारिश की कि टाल्सटॉय के अन्ना कैरेनिना और 'वार एंड पीस' शीर्षक पढ़ो । पर प्रेमचंदजी की एक बात से मेरे हृय को एक बड़ा धक्का लगा । जब उन्होंने कहा - टाल्सटॉय के मुकाबले में तुर्गनेव अत्यंत क्षुद्र हैं तो मेरे मन में यह भावना उत्पन्न हुए बिना न रही कि प्रेमचंदजी उच्चकोटि के आलोचक नहीं । संसार के श्रेष्ठ आलोचकों की सम्मति में कला की दृष्टि से तुर्गनेव उन्नीसवीं शताब्दी का सर्वोत्तम कलाकार था । मैंने प्रेमचंदजी से यही निवेदन किया कि तुर्गनेव को एक बार फिर पढ़िए ।

प्रेमचंदजी के सत्संग में एक अजीब आकर्षण है । उनका घर एक निष्कपट आडंबर शून्य, सद्-गृहस्थ का घर है । और यद्यपि प्रेमचंदजी काफी प्रगतिशील हैं - समय के साथ बराबर चल रहे हैं - फिर भी उनकी सरलता तथा विवेकशीलता ने उनके गृह-जीवन के सौंदर्य को अक्षुण्ण तथा अविचलित बनाए रखा है । उनके साथ व्यतीत हुए दो दिन जीवन के चिरस्मरणीय दिनों में रहेंगे ।

 

(जनवरी, 1932) विशाल भारत

 

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