Thursday, October 28, 2021

ऐसा कोई घर आपने देखा है / अज्ञेय


कौन खोले द्वार

सचमुच के आये को
कौन खोले द्वार!
हाथ अवश
नैन मुँदे
हिये दिये
पाँवड़े पसार!
कौन खोले द्वार!
तुम्हीं लो सहास खोल
तुम्हारे दो अनबोल बोल
गूँज उठे थर थर अन्तर में
सहमे साँस
लुटे सब, घाट-बाट,
देह-गेह
चौखटे-किवार!
मीरा सौ बार बिकी है
गिरधर! बेमोल!
सचमुच के आये को
कौन खोले द्वार!




Wednesday, October 27, 2021

अनुवादक के रूप में निर्मल वर्मा

http://www.jankriti.com/nirmal-verma/?scienation=generate-pdf&post_id=7089#

तारागण से एक शान्ति-सी छन-छन कर आती है क्योंकि तुम हो - अज्ञेय



मेघों को सहसा चिकनी अरुणाई छू जाती है


तारागण से एक शान्ति-सील छन-छन कर आती है
क्योंकि तुम हो।

फुटकी सी लहरिल उड़ान 
शाश्वत के मूल गान की स्वर लिपि-सी संज्ञा के पट पर अंक
जाती है
जुगनू की छोटी-सी द्युति में नए अर्थ की 
अनपहचाने अभिप्राय की किरण चमक जाती है
क्योंकि तुम हो।

जीवन का हर कर्म समर्पण हो जाता है
आस्था की आप्लवन एक संशय के कल्मष धो जाता है
क्योंकि तुम हो।

कठिन विषमताओं के जीवन में लोकोत्तर सुख का स्पन्दन मैं 
भरता हूं
अनुभव की कच्ची मिट्टी को तदाकार कंचन करता हूं
क्योंकि तुम हो।

तुम तुम हो ; मैं-क्या हूं ?
ऊंची उड़ान, छोटे कृतित्व की लम्बी परम्परा हूं,
पर कवि हूं स्रष्टा, द्रष्टा, दाता:
जो पाता हूं अपने को मट्टी कर उस का अंकुर पनपाता हूं
पुष्प-सा, सलिल-सा, प्रसाद-सा, कंचन-सा, शस्य-सा, पुण्य-सा,
अनिर्वच आह्लाद-सा लुटाता हूं
क्योंकि तुम हो। 


🕉️🕉️

Sunday, October 17, 2021

एक नीला आईना बेठोस / शमशेर बहादुर सिंह

 

 

एक नीला आईना

बेठोस-सी यह चाँदनी

और अंदर चल रहा हूँ मैं

उसी के महातल के मौन में ।

मौन में इतिहास का

कन किरन जीवित, एक, बस ।

एक पल की ओट में है कुल जहान ।

आत्मा है

अखिल की हठ-सी ।

चाँदनी में घुल गए हैं

बहुत-से तारे, बहुत कुछ

घुल गया हूँ मैं

बहुत कुछ अब ।

रह गया-सा एक सीधा बिंब

शाम होने को हुई / शमशेर बहादुर सिंह

 

 

  शमशेर बहादुर सिंह »

शाम होने को हुई, लौटे किसान

दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।

धूल में लिपटा हुआ है आसमान :

शाम होने को हुई, नीरव।

 

तू न चेता। काम से थक कर

फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर

लौट आये खोलियों में मौन।

चेतने वाला न तू - है कौन?

 

शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,

लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,

स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर

चले : जाने कौन-सी है ललक।

 

घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव

चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :

आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव

भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।

 

हाय कर उठते हमारे नयन;

होंट सी लेते दबा अफसोस :

माँगता उर-भार अन्तिम शयन ...

चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।

 

दूर की मर्मर-मिली नीहार,

दूर की नीहार मालाएँ;

निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।

एक ही आह्वान : आ जाएँ!

आज आ जाएँ हमारे ऐन!

 

भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य

हृदय को विश्‍वास देते दान :

प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;

स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।

 

दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!

... ...

छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय

सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!

- शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

 

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई

बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर -

नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर

भाव ...कैसे सहज, कैसे क्रूर!

[1945]

एक पीली शाम / शमशेर बहादुर सिंह

 



  शमशेर बहादुर सिंह »

एक पीली शाम

      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता

शान्त

मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल

कृश म्‍लान हारा-सा

     (कि मैं हूँ वह

मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

 

     वासना डूबी

     शिथिल पल में

     स्‍नेह काजल में

     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

 

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू

सान्‍ध्‍य तारक-सा

      अतल में।

 

[1953]

 

 

 

भारत की आरती / शमशेर बहादुर सिंह

 



  शमशेर बहादुर सिंह »

भारत की आरती

देश-देश की स्वतंत्रता देवी

आज अमित प्रेम से उतारती ।

 

निकटपूर्व, पूर्व, पूर्व-दक्षिण में

जन-गण-मन इस अपूर्व शुभ क्षण में

गाते हों घर में हों या रण में

भारत की लोकतंत्र भारती।

 

गर्व आज करता है एशिया

अरब, चीन, मिस्र, हिंद-एशिया

उत्तर की लोक संघ शक्तियां

युग-युग की आशाएं वारतीं।

 

साम्राज्य पूंजी का क्षत होवे

ऊंच-नीच का विधान नत होवे

साधिकार जनता उन्नत होवे

जो समाजवाद जय पुकारती।

 

जन का विश्वास ही हिमालय है

भारत का जन-मन ही गंगा है

हिन्द महासागर लोकाशय है

यही शक्ति सत्य को उभारती।

 

यह किसान कमकर की भूमि है

पावन बलिदानों की भूमि है

भव के अरमानों की भूमि है

मानव इतिहास को संवारती।

 

(15 अगस्त 1947 को विरचित,'कुछ कवितायें'नामक कविता-संग्रह से )


निराला के प्रति / शमशेर बहादुर सिंह

 

 

भूलकर जब राह- जब-जब राह...भटका मैं

तुम्हीं झलके, हे महाकवि,

सघन तम की आंख बन मेरे लिए,

अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-

जगत के उन्माद का

परिचय लिए,-

और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,

हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में

अखिल का परिणय लिए-

प्राणमय संचार करते शक्ति औ' छवि के मिलन का हास मंगलमय;

मधुर आठों याम

विसुध खुलते

कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,

एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!

काल में (तम घोर)-

बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!

छू, किया करते

आधुनिकतम दाह मानव का

साधना स्वर से

शांत-शीतलतम ।

 

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :

जानता क्या मैं-

हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-

किस तरह गाता,

(ओ विभूति परंपरा की!)

समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,

महाकवि मेरे !

 

 

(1939 में विरचित,'कुछ कविताएँ' नामक कविता-संग्रह से)

दूब - शमशेर बहादुर सिंह

 

 


मोटी, धुली लॉन की दूब,

       साफ मखमल की कालीन।

ठंडी धुली सुनहरी धूप।

 

हलकी मीठी चा-सा दिन,

मीठी चुस्‍की-सी बातें,

मुलायम बाँहों-सा अपनाव।

 

पलकों पर हौले-हौले

तुम्‍हारे फूल-से पाँव

      मानो भूल कर पड़ते

      हृदय के सपनों पर मेरे!

 

अकेला हूँ, आओ!

 

[1945]

 

कुछ कविताएँ (काव्य-संग्रह) – 1959 ई. में संग्रहीत


Tuesday, October 12, 2021

प्रेमचन्द के साथ दो दिन (साक्षात्कार)

प्रेमचन्द के साथ दो दिन (साक्षात्कार)

 

आप आ रहे हैं, बड़ी खुशी हुई । अवश्य आइये । आपसे न-जाने कितनी बातें करनी है ।

            मेरे मकान का पता है –

            बेनिया-बाग में तालाब के किनारे लाल मकान । किसी इक्केवाले से कहिये, वह आपको बेनिया – पार्क पहुंचा देगा । पार्क में एक तालाब है । जो अब सुख रहा है । द्वार पर लोहे की Fencing है । अवश्य आइये ।

- - धनपतराय  ।   

            प्रेमचंदजी की सेवा में उपस्थित होने की इच्छा बहुत दिनों से थी । यद्यपि आठ वर्ष पहले लखनऊ में एक बार उनके दर्शन किए थे, पर उस समय अधिक बातचीत करने का मौका नहीं मिला था । इन आठ वर्षों में कई बार काशी जाना हुआ, पर प्रेमचंदजी उन दिनों काशी में नहीं थे । इसलिए ऊपर की चिट्ठी मिलते ही मैंने बनारस कैंट का टिकट कटाया और इक्का लेकर बेनिया पार्क पहुँच ही गया । प्रेमचंद जी का मकान खुली जगह में सुंदर स्थान पर है और कलकत्ते का कोई भी हिंदी पत्रकार इस विषय में उनसे ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकता । लखनऊ के आठ वर्ष पुराने प्रेमचंदजी और काशी के प्रेमचंदजी की रूपरेखा में विशेष अंतर नहीं पड़ा । हाँ मूँछों के बाल जरूर 53 फीसदी सफेद हो गए हैं। उम्र भी करीब-करीब इतनी ही है। परमात्मा उन्हें शतायु करें, क्योंकि हिंदी वाले उन्हीं की बदौलत आज दूसरी भाषा वालों के सामने मूँछों पर ताव दे सकते हैं । यद्यपि इस बात में संदेह है कि प्रेमचंदजी हिंदी भाषा-भाषी जनता में कभी उतने लोकप्रिय बन सकेंगे, जितने कवीवर मैथिलीशरण जी हैं, पर प्रेमचंदजी के सिवा भारत की सीमा उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिंदी कलाकार इस समय हिंदी जगत में विद्यमान नहीं । लोग उनको उपन्यास सम्राट कहते हैं, पर कोई भी समझदार आदमी उनसे दो ही मिनट बातचीत करने के बाद समझ सकता है कि प्रेमचंदजी में साम्राज्यवादिता का नामोनिशान नहीं । कद के छोटे हैं, शरीर निर्बल-सा है । चेहरा भी कोई प्रभावशाली नहीं और श्रीमती शिवरानी देवी जी हमें क्षमा करें, यदि हम कहें कि जिस समय ईश्वर के यहाँ शारीरिक सौंदर्य बँट रहा था, प्रेमचंदजी जरा देर से पहुँचे थे । पर उनकी उन्मुक्त हँसी की ज्योति पर, जो एक सीधे-सादे, सच्चे स्नेहमय हृदय से ही निकल सकती है, कोई भी सहृदया सुकुमारी पतंगवत् अपना जीवन निछावर कर सकती है । प्रेमचंदजी ने बहुत से कष्ट पाए हैं, अनेक मुसीबतों का सामना किया है, पर उन्होंने अपने हृदय में कटुता को नहीं आने दिया । वे शुष्क बनियापन से कोसों दूर हैं और बेनिया पार्क का तालाब भले ही सूख जाए, उनके हृदय सरोवर से सरसता कदापि नहीं जा सकती । प्रेमचंदजी में सबसे बड़ा गुण यही है कि उन्हें धोखा दिया जा सकता है । जब इस चालाक साहित्य-संसार में बीसियों आदमी ऐसे पाए जाते हैं, जो दिन-दहाड़े दूसरों को धोखा दिया करते हैं, प्रेमचंदजी की तरह के कुछ आदमियों का होना गनीमत है । उनमें दिखावट नहीं, अभिमान उन्हें छू भी नहीं गया और भारत व्यापी कीर्ति उनकी सहज विनम्रता को उनसे छीन नहीं पाई ।

प्रेमचंदजी से अबकी बार घंटों बातचीत हुई । एक दिन तो प्रातःकाल 11 बजे से रात के 10 बजे तक और दूसरे दिन सबेरे से शाम तक । प्रेमचंदजी गल्प लेखक हैं, इसलिए गप लड़ाने में आनंद आना उनके लिए स्वाभाविक ही है। (भाषा तत्त्वविद बतलावें कि गप शब्द की व्युत्पत्ति गल्प से हुई है या नहीं?)

यदि प्रेमचंदजी को अपनी डिक्टेटरी श्रीमती शिवरानी देवी का डर न रहे, तो वे चौबीस घंटे यही निष्काम कर्म कर सकते हैं । एक दिन बात करते-करते काफी देर हो गई । घड़ी देखी तो पता लगा कि पौन दो बजे हैं । रोटी का वक्त निकल चुका था । प्रेमचंदजी ने कहा - 'खैरियत यह है कि घर में ऊपर घड़ी नहीं है, नहीं तो अभी अच्छी खासी डाँट सुननी पड़ती !' घर में एक घड़ी रखना, और सो भी अपने पास, बात सिद्ध करती है कि पुरुष यदि चाहे तो स्त्री से कहीं अधिक चालाक बन सकता है, और प्रेमचंदजी में इस प्रकार का चातुर्य बीजरूप में तो विद्यमान है ही ।

प्रेमचंदजी स्वर्गीय कविवर शंकरजी की तरह प्रवास भीरु हैं । जब पिछली बार आप दिल्ली गए थे,तो हमारे एक मित्र ने लिखा था - ''पचास वर्ष की उम्र में प्रेमचंदजी पहली बार दिल्ली आए हैं !'' इससे हमें आश्चर्य नहीं हुआ । आखिर सम्राट पंचम जॉर्ज भी जीवन में एक बार ही दिल्ली पधारे हैं और प्रेमचंदजी भी तो उपन्यास सम्राट ठहरे ! इसके सिवा यदि प्रेमचंदजी इतने दिन बाद दिल्ली गए तो इसमें दिल्ली का कसूर है, उनका नहीं ।

प्रेमचंदजी में गुण ही गुण विद्यमान हों, सो बात नहीं । दोष हैं और संभवतः अनेक दोष हैं। एक बार महात्माजी से किसी ने पूछा था - ''यह सवाल आप बा (श्रीमती कस्तूरबा गांधी) से पूछिए ।'' श्रीमती शिवरानी देवी से हम प्रार्थना करेंगे कि वे उनके दोषों पर प्रकाश डालें। एक बात तो उन्होंने हमें बतला भी दी कि ''उनमें प्रबंध शक्ति का बिल्कुल अभाव है । हमीं-सी हैं जो इनके घर का इंतजाम कर सकी हैं ।'' पर इस विषय में श्रीमती सुदर्शन उनसे कहीं आगे बढ़ी हुई हैं । वे सुदर्शनजी के घर का ही प्रबंध नहीं करतीं, स्वयं सुदर्शनजी का भी प्रबंध करती हैं और कुछ लोगों का तो जिनमें सम्मिलति होने की इच्छा इन पंक्तियों के लेखक की भी है - यह दृढ़ विश्वास है कि श्रीमती सुदर्शन गल्प लिखती हैं और नाम श्रीमान सुदर्शनजी का होता है ।

प्रेमचंदजी में मानसिक स्फूर्ति चाहे कितनी ही अधिक मात्रा में क्यों न हो, शारीरिक फुर्ती का प्रायः अभाव ही है। यदि कोई भला आदमी प्रेमचंदजी तथा सुदर्शनजी को एक मकान में बंद कर दे, तो सुदर्शनजी तिकड़म भिड़ाकर छत से नीचे कूद पड़ेंगे और प्रेमचंदजी वहीं बैठे रहेंगे । यह दूसरी बात है कि प्रेमचंदजी वहाँ बैठै-बैठै कोई गल्प लिख डालें ।

जम के बैठ जाने में ही प्रेमचंदजी की शक्ति और निर्बलता का मूल स्रोत छिपा हुआ है । प्रेमचंदजी ग्रामों में जमकर बैठ गए और उन्होंने अपने मस्तिष्क के सुपरफाइन कैमरे से वहाँ के चित्र-विचित्र जीवन का फिल्म ले लिया । सुना है इटली की एक लेखिका श्रीमती ग्रेजिया दलिद्दा ने अपने देश के एक प्रांत-विशेष के निवासियों की मनोवृत्ति का ऐसा बढ़िया अध्ययन किया और उसे अपनी पुस्तक में इतनी खूबी के साथ चित्रित कर दिया कि उन्हें 'नोबेल प्राइज' मिल गया। प्रेमचंदजी का युक्त प्रांतीय ग्राम्य-जीवन का अध्ययन अत्यंत गंभीर है, और ग्रामवासियों के मनोभावों का विश्लेषण इतने उँचे दर्जे का है कि इस विषय में अन्य भाषाओं के अच्छे से अच्छे लेखक उनसे ईर्ष्या कर सकते हैं ।

कहानी लेखकों तथा कहानी लेखन कला के विषय में प्रेमचंदजी से बहुत देर तक बातचीत हुई । उनसे पूछने के लिए मैं कुछ सवाल लिखकर ले गया था । पहला सवाल यह था, ''कहानी लेखन कला के विषय में क्या बतलाऊँ ? हम कहानी लिखते हैं, दूसरे लोग पढ़ते । दूसरे लिखते हैं, हम पढ़ते हैं और क्या कहूँ ?'' इतना कहकर खिलखिलाकर हँस पड़े और मेरा प्रश्न धारा-प्रवाह अट्टहास में विलीन हो गया । दरअसल बात यह थी कि प्रेमचंदजी की सम्मति में वे सवाल ऐसे थे, जिन पर अलग-अलग निबंध लिखे जा सकते हैं ।

प्रश्न - हिंदी कहानी लेखन की वर्तमान प्रगति कैसी है ? क्या वह स्वस्थ तथा उन्नतिशील मार्ग पर है ?

उत्तर - प्रगति बहुत अच्छी है । यह सवाल ऐसा नहीं कि इसका जवाब आफहैंड दिया जा सके ।

प्रश्न - नवयुवक कहानी लेखकों में सबसे अधिक होनहार कौन है ?

उत्तर - जैनेंद्र तो हैं ही और उनके विषय में पूछना ही क्या है ? इधर श्री वीरेश्वर सिंह ने कई अच्छी कहानियाँ लिखी हैं । बहुत उँचे दर्जे की कला तो उनमें अभी विकसित नहीं हो पाई, पर तब भी अच्छा लिख लेते हैं । बाज-बाज कहानियाँ तो बहुत अच्छी हैं । हिंदू विश्वविद्यालय के ललित किशोर सिंह भी अच्छा लिखते हैं । श्री जनार्दन झा द्विज में भी प्रतिभा है ।

प्रश्न - विदेशी कहानियों का हमारे लेखकों पर कहाँ तक प्रभाव पड़ा है?

उत्तर - हम लोगों ने जितनी कहानियाँ पढ़ी हैं, उनमें रसियन कहानियों का ही सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है । अभी तक हमारे यहाँ 'एडवेंचर' (साहसिकता) की कहानियाँ हैं ही नहीं और जासूसी कहानियाँ भी बहुत कम हैं । जो हैं भी, वे मौलिक नहीं हैं, कैनन डायल की अथवा अन्य कहानी लेखकों की छायामत्र है । क्राइम डिटैक्शन की साइंस का हमारे यहाँ विकास ही नहीं हुआ है ।

प्रश्न - संसार का सर्वश्रेष्ठ कहानी लेखक कौन है ?

उत्तर - चेखव।

प्रश्न - आपको सर्वोत्तम कहानी कौन जँची ?

उत्तर - यह बतलाना बहुत मुश्किल है । मुझे याद नहीं रहता । मैं भूल जाता हूँ । टाल्सटॉय की वह कहानी, जिसमें दो यात्री तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं, मुझे बहुत पसंद आई। नाम उसका याद नहीं रहा । चेखव की वह कहानी भी जिसमें एक स्त्री बड़े मनोयोगपूर्वक अपनी लड़की के लिए जिसका विवाह होने वाला है कपड़े सी रही है, मुझे बहुत अच्छी जँची। वह स्त्री आगे चलकर उतने ही मनोयोग पूर्वक अपनी मृत पुत्री के कफन के लिए कपड़ा सीती हुई दिखलाई गई है । कवींद्र रवींद्रनाथ की 'दृष्टिदान' नामक कहानी भी इतनी अच्छी है कि वह संसार की अच्छी से अच्छी कहानियों से टक्कर ले सकती है।

इस पर मैंने पूछा कि 'काबुलीवाला' के विषय में आपकी क्या राय है ?

प्रेमचंदजी ने कहा कि ''निस्संदेह वह अत्युत्तम कहानी है । उसकी अपील यूनिवर्सल है, पर भारतीय स्त्री का भाव जैसे उत्तम ढंग से 'दृष्टिदान' में दिखलाया गया है, वैसा अन्यत्र शायद ही कहीं मिले।  मपासां की कोई-कोई कहानी बहुत अच्छी है, पर मुश्किल यह है कि वह 'सैक्स' से ग्रस्त है ।''

प्रेमचंदजी टाल्सटॉय के उतने ही बड़े भक्त हैं जितना मैं तुर्गनेव का । उन्होंने सिफारिश की कि टाल्सटॉय के अन्ना कैरेनिना और 'वार एंड पीस' शीर्षक पढ़ो । पर प्रेमचंदजी की एक बात से मेरे हृय को एक बड़ा धक्का लगा । जब उन्होंने कहा - टाल्सटॉय के मुकाबले में तुर्गनेव अत्यंत क्षुद्र हैं तो मेरे मन में यह भावना उत्पन्न हुए बिना न रही कि प्रेमचंदजी उच्चकोटि के आलोचक नहीं । संसार के श्रेष्ठ आलोचकों की सम्मति में कला की दृष्टि से तुर्गनेव उन्नीसवीं शताब्दी का सर्वोत्तम कलाकार था । मैंने प्रेमचंदजी से यही निवेदन किया कि तुर्गनेव को एक बार फिर पढ़िए ।

प्रेमचंदजी के सत्संग में एक अजीब आकर्षण है । उनका घर एक निष्कपट आडंबर शून्य, सद्-गृहस्थ का घर है । और यद्यपि प्रेमचंदजी काफी प्रगतिशील हैं - समय के साथ बराबर चल रहे हैं - फिर भी उनकी सरलता तथा विवेकशीलता ने उनके गृह-जीवन के सौंदर्य को अक्षुण्ण तथा अविचलित बनाए रखा है । उनके साथ व्यतीत हुए दो दिन जीवन के चिरस्मरणीय दिनों में रहेंगे ।

 

(जनवरी, 1932) विशाल भारत

 

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ऐसे में उदास हो जाना उदासीन हो जाना या पागल हो जाना भी स्वाभाविक किसी बड़ी बेहया धातु के बने हुए वे, जो ऐसे में भी हैं, गाते                 ...