मेघों को सहसा चिकनी अरुणाई छू जाती है
तारागण से एक शान्ति-सील छन-छन कर आती है
क्योंकि तुम हो।
फुटकी सी लहरिल उड़ान
शाश्वत के मूल गान की स्वर लिपि-सी संज्ञा के पट पर अंक
जाती है
जुगनू की छोटी-सी द्युति में नए अर्थ की
अनपहचाने अभिप्राय की किरण चमक जाती है
क्योंकि तुम हो।
जीवन का हर कर्म समर्पण हो जाता है
आस्था की आप्लवन एक संशय के कल्मष धो जाता है
क्योंकि तुम हो।
कठिन विषमताओं के जीवन में लोकोत्तर सुख का स्पन्दन मैं
भरता हूं
अनुभव की कच्ची मिट्टी को तदाकार कंचन करता हूं
क्योंकि तुम हो।
तुम तुम हो ; मैं-क्या हूं ?
ऊंची उड़ान, छोटे कृतित्व की लम्बी परम्परा हूं,
पर कवि हूं स्रष्टा, द्रष्टा, दाता:
जो पाता हूं अपने को मट्टी कर उस का अंकुर पनपाता हूं
पुष्प-सा, सलिल-सा, प्रसाद-सा, कंचन-सा, शस्य-सा, पुण्य-सा,
अनिर्वच आह्लाद-सा लुटाता हूं
क्योंकि तुम हो।
🕉️🕉️
बहुत सुंदर
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteवाह
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