Wednesday, May 25, 2022

ऐसे में उदास हो जाना

उदासीन हो जाना

या पागल हो जाना भी स्वाभाविक

किसी बड़ी बेहया धातु के बने हुए वे,

जो ऐसे में भी हैं, गाते                                                


हरिवंश राय ‘बच्चन’

समकालीन कविता एवं उनके प्रवर्तक

1.नयी कविता-"अज्ञेय"

2.नवगीत-"राजेन्द्र प्रसाद सिंह" (डॉ शम्भूनाथ सिंह)

3.साठोत्तरी  कविता -"जगदीश गुप्त"

4.ताजी कविता-"लक्ष्मीकांत वर्मा"

5.तटकी कविता-"राम बचन राय"

6.अगीत-"रंगनाथ मिश्र"

7.बीट गीत -"राजकमल चौधरी"

8.अस्वीकृत कविता-"श्रीराम शुक्ल"

9.सहज कविता-"रविन्द्र भ्रमर"

10.सनातणी सूर्योदय कविता-'विरेन्द्र कुमार जैन"

11.कैप्सूल वाद-"डॉ ओमकार नाथ त्रिपाठी"

12.अकविता-"श्याम परमार"

13.आज की कविता-"हरीश मैदानी"

14.साम्प्रतिक कविता-"श्याम नारायण"

15.युयुत्शावादीकविता-"शलभ श्री राम सिंह"

16.निर्दिशांयामी कविता- "डॉ सत्यदेव राजहंस"

17.वाम/प्रतिबद्ध कविता-"डॉ परमानंद श्रीवास्तव'

18.नवप्रगतिशील-"नवलकिशोर"

Sunday, March 6, 2022

जन्‍मदिन विशेष: सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय”

'भोगनेवाले प्राणी और सृजन करने वाले कलाकार में सदा एक अंतर रहता है, और जितना बड़ा कलाकार होता है, उतना ही भारी यह अंतर होता है...'

(7 मार्च, 1911 - 4 अप्रैल, 1987)




Thursday, October 28, 2021

ऐसा कोई घर आपने देखा है / अज्ञेय


कौन खोले द्वार

सचमुच के आये को
कौन खोले द्वार!
हाथ अवश
नैन मुँदे
हिये दिये
पाँवड़े पसार!
कौन खोले द्वार!
तुम्हीं लो सहास खोल
तुम्हारे दो अनबोल बोल
गूँज उठे थर थर अन्तर में
सहमे साँस
लुटे सब, घाट-बाट,
देह-गेह
चौखटे-किवार!
मीरा सौ बार बिकी है
गिरधर! बेमोल!
सचमुच के आये को
कौन खोले द्वार!




Wednesday, October 27, 2021

अनुवादक के रूप में निर्मल वर्मा

http://www.jankriti.com/nirmal-verma/?scienation=generate-pdf&post_id=7089#

तारागण से एक शान्ति-सी छन-छन कर आती है क्योंकि तुम हो - अज्ञेय



मेघों को सहसा चिकनी अरुणाई छू जाती है


तारागण से एक शान्ति-सील छन-छन कर आती है
क्योंकि तुम हो।

फुटकी सी लहरिल उड़ान 
शाश्वत के मूल गान की स्वर लिपि-सी संज्ञा के पट पर अंक
जाती है
जुगनू की छोटी-सी द्युति में नए अर्थ की 
अनपहचाने अभिप्राय की किरण चमक जाती है
क्योंकि तुम हो।

जीवन का हर कर्म समर्पण हो जाता है
आस्था की आप्लवन एक संशय के कल्मष धो जाता है
क्योंकि तुम हो।

कठिन विषमताओं के जीवन में लोकोत्तर सुख का स्पन्दन मैं 
भरता हूं
अनुभव की कच्ची मिट्टी को तदाकार कंचन करता हूं
क्योंकि तुम हो।

तुम तुम हो ; मैं-क्या हूं ?
ऊंची उड़ान, छोटे कृतित्व की लम्बी परम्परा हूं,
पर कवि हूं स्रष्टा, द्रष्टा, दाता:
जो पाता हूं अपने को मट्टी कर उस का अंकुर पनपाता हूं
पुष्प-सा, सलिल-सा, प्रसाद-सा, कंचन-सा, शस्य-सा, पुण्य-सा,
अनिर्वच आह्लाद-सा लुटाता हूं
क्योंकि तुम हो। 


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Sunday, October 17, 2021

एक नीला आईना बेठोस / शमशेर बहादुर सिंह

 

 

एक नीला आईना

बेठोस-सी यह चाँदनी

और अंदर चल रहा हूँ मैं

उसी के महातल के मौन में ।

मौन में इतिहास का

कन किरन जीवित, एक, बस ।

एक पल की ओट में है कुल जहान ।

आत्मा है

अखिल की हठ-सी ।

चाँदनी में घुल गए हैं

बहुत-से तारे, बहुत कुछ

घुल गया हूँ मैं

बहुत कुछ अब ।

रह गया-सा एक सीधा बिंब

ऐसे में उदास हो जाना उदासीन हो जाना या पागल हो जाना भी स्वाभाविक किसी बड़ी बेहया धातु के बने हुए वे, जो ऐसे में भी हैं, गाते                 ...